Friday, October 24, 2025

पीके क्यों नहीं लड़ेंगे चुनाव ?



बिहार के चुनावी मौसम में टिकट की मारामारी के बीच पिछले दो साल से बिहार बदलने का नारा गढ़ने वाले जन सुराज के सूत्रधार प्रशांत किशोर को लेकर हर जगह चर्चा हो रही है लेकिन राजनीति के इस रणनीतिकार ने यह कह कर सबको चौंका दिया है कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे।

दरअसल प्रशांत किशोर ने पेशा भले बदल लिया हो, भले ही वो चुनाव रणनीतिकार से राजनीति के मैदान में कूद पड़े हों, लेकिन अब भी ज्यादा भरोसा उनको चुनाव लड़ाने में ही है, न कि खुद लड़ने में।

गौरतलब है कि पहले वो नीतीश कुमार के खिलाफ या राघोपुर से तेजस्वी यादव के खिलाफ मैदान में उतरने की बात कर रहे थे, लेकिन अब उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कदम पीछे खींच लिया है।

राजनीति को करीब से देखने वाले यह कह रहे हैं कि प्रशांत किशोर के जन सुराज अभियान में आरंभ से ही अरविंद केजरीवाल की राजनीति दिख रही थी। अरविंद केजरीवाल भी करपश्न को अपना हथियार बनाकर राजनीति करने उतरे थे। वे भी पीके की तरह ही अपने राजनीतिक विरोधियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते रहते थे।
 
एक चीज और गौर करने की बात है कि जन सुराज पार्टी के उम्मीदवार भी इलाके के लोगों के फीडबैक के बाद ही चुने जाने का दावा पीके करते आए हैं और ऐसा ही कुछ अरविंद केजरीवाल भी करते थे।

लेकिन, खुद चुनाव लड़ने के मामले में अरविंद केजरीवाल से प्रशांत किशोर के विचार अब अलग दिखने लगे हैं। हालांकि अपने प्रचार तंत्र के जरिए प्रशांत किशोर ने चुनाव लड़ने को लेकर खूब हवा बनाई, लेकिन अब पीछे हट गए हैं।

नीतीश कुमार से लेकर तेजस्वी यादव तक के खिलाफ चुनाव लड़ने का दावा करने वाले प्रशांत किशोर ने हथियार डाल दिया है, और इसके लिए जन सुराज पार्टी के फैसले को सार्वजिनक करने का शायद बहाना बनाया है।

चुनाव अभियान पर निकलने से पहले प्रशांत किशोर ने पिछले ही हफ्ते कहा था, “मैं राघोपुर जा रहा हूं... वहां के लोगों से मिलकर उनकी राय लूंगा।”

प्रशांत किशोर ने तो यहां तक दावा किया था कि अगर वो राघोपुर से चुनाव लड़े तो तेजस्वी यादव को दो सीटों से चुनाव लड़ना पड़ेगा। प्रशांत किशोर का कहना था, 'तेजस्वी यादव का वही हश्र होगा जो राहुल गांधी को अमेठी में हुआ था।'

गौरतलब है कि 2019 के आम चुनाव में राहुल गांधी भी उत्तर प्रदेश की अमेठी और केरल की वायनाड लोकसभा सीट से चुनाव लड़े थे। राहुल गांधी को अमेठी में भारतीय जनता पार्टी की स्मृति ईरानी ने हरा दिया था।

लेकिन जब जन सुराज पार्टी के उम्मीदवारों की सूची आई तो मालूम हुआ राघोपुर से चंचल सिंह को टिकट दे दिया गया है। प्रशांत किशोर के करगहर से भी चुनाव लड़े की संभावना जताई जा रही थी, जहां से भोजपुरी गायक रितेश पांडेय को जन सुराज पार्टी का टिकट मिला है।

प्रशांत किशोर का कहना है, “पार्टी ने फैसला किया है कि मुझे विधानसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहिए... इसलिए पार्टी ने तेजस्वी यादव के खिलाफ राघोपुर से अन्य उम्मीदवार की घोषणा की है... ये पार्टी के व्यापक हित में लिया गया फैसला है... अगर मैं चुनाव लड़ता तो इससे मेरा ध्यान आवश्यक संगठनात्मक कार्यों से हट जाता।”

प्रशांत किशोर के इस बयान के बाद लोग यह भी कहने लगे हैं कि जन सुराज के संस्थापक को शायद चुनाव लड़ने से अधिक चुनाव लड़वाने में दिलचस्पी है।

राजनीति में यह कहा जाता रहा है कि चुनाव मैदान में लड़ने के लिए उतरना होता है, हार या जीत के लिए नहीं। लेकिन, प्रशांत किशोर ने ये जोखिम नहीं उठाने का फैसला किया है। इस घटनाक्रम को देखने के बाद यह भी कहा जा सकता है कि पीके खुद को वैसी गारंटी नहीं दे पा रहे होंगे, जो अब तक अपने क्लाइंट को देते रहे हैं।

तेजस्वी यादव जिस राघोपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं, वो लालू यादव के परिवार का गढ़ रहा है। लालू यादव और राबड़ी देवी दोनों ही राघोपुर से विधायक रह चुके हैं। तेजस्वी यादव के लिए बिहार में बहुमत हासिल करना मुश्किल हो सकता है, लेकिन राघोपुर से किसी के लिए अचानक मैदान में उतर कर उन्हें हराना उतना आसान भी नहीं दिखता है।

लोगबाग यह कहते हैं कि प्रशांत किशोर भले ही बिहार में बदलाव की आवाज बन कर उभरे हों, लेकिन उनकी छवि आज जनमानस में रणनीतिकार की ही है जो केवल चुनावी बिसात बिछाता है।

जन सुराज अभियान के संस्थापक के तौर पर प्रशांत किशोर पिछले दो वर्षों से गांव-गांव पदयात्रा कर जनता के बीच संवाद कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह आंदोलन किसी व्यक्ति या पद के लिए नहीं, बल्कि बिहार के भविष्य के लिए है।

हाल ही में भाजपा सांसद रविशंकर प्रसाद ने प्रशांत किशोर के चुनाव न लड़ने पर सवाल उठाया था और कहा था कि “प्रशांत किशोर चुनाव क्यों नहीं लड़ रहे हैं? हम यह सवाल जरूर उठाएंगे। वह भी बिहार को बदलना चाहते हैं..शायद उनका भी मुख्यमंत्री बनने का सपना है, इसलिए उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए. हिम्मत क्यों नहीं है? ”

गौरतलब है कि पहले प्रशांत किशोर के राघोपुर विधानसभा सीट से लड़ने की चर्चा थी। जिस तरह से वह राजद और बिहार सरकार पर हमला बोलते थे उससे माना जा रहा था कि वह राघोपुर सीट से चुनाव लड़ेंगे। ऐसे में उनका सीधा मुकाबला तेजस्वी यादव से होता। तेजस्वी यादव भी राघोपुर सीट से चुनाव लड़ रहे हैं।

इन सबके बीच पीके की पार्टी में लोगों के जुड़ने का सिलसिला जारी है। इस कड़ी में अररिया के पूर्व सांसद सरफराज आलम ने राष्ट्रीय जनता दल को अलविदा कहकर ‘जन सुराज’ अभियान का दामन थामा है।

सरफराज आलम का ‘जन सुराज’ में शामिल होना राजद के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है। उन्होंने गुरुवार को आरजेडी से अपना इस्तीफा दिया था और कुछ ही घंटों बाद प्रशांत किशोर के साथ खड़े दिखे। सरफराज आलम सीमांचल की राजनीति का एक बड़ा चेहरा हैं। वह जोकीहाट विधानसभा क्षेत्र से चार बार विधायक रह चुके हैं और अररिया से एक बार सांसद भी चुने गए थे। उनके इस कदम से माना जा रहा है कि सीमांचल इलाके में ‘जन सुराज’ को काफी मजबूती मिलेगी।



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Girindra Nath Jha
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Sunday, September 14, 2025

पीके की सभा और जेसीबी!

बिहार की राजनीति इन दिनों हर रोज चुनावी गुणा-भाग के गणित को सुलझाने में लगी है। हर दल के नेताओं का आना-जान लगा हुआ है। सत्ताधारी दल लोकलुभावन फैसले लेकर जनता का मन मोहने में लगी है, वहीं विपक्ष सरकार के खिलाफ लगातार मुखर बनी हुई है।

इन दिनों पूरा बिहार बैनर-पोस्टर से भरा पड़ा हुआ है। भावी प्रत्याशियों के छोटे-बड़े बैनर आपको हर जगह दिख जाएंगे। इन सब हो-हल्ले के बीच जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर आपको हर दिन बिहार के किसी न किसी इलाके में सभा करते दिख जाएंगे।  

उनकी सभा को नजदीक से देखने पर आपको कई ऐसी चीजों को समझने का मौका मिलता है, जिससे आप कह सकते हैं कि आने वाला वक्त कॉरपोरेट पॉलिटिक्स का होने जा रहा है, जहां इवेंट ही सबकुछ होगा।

हाल ही में प्रशांत किशोर की एक सभा में वक्त गुजारने का मौका मिला। फिल्ड रिपोर्टिंग के सिलसिले में पूर्णिया – मधेपुरा सीमा के आसापास के इलाकों को समझने में लगा था। पता चला कि पूर्णिया के रूपौली विधानसभा क्षेत्र में प्रशांत किशोर की सभा है। तो हम भी पहुंच गए उनकी सभा में और जानने की कोशिश में जुट गए कि क्या क्या हो रहा है सभा स्थल पर और उसके आसपास।

हाईवे से ग्रामीण इलाकों तक पीले रंग के तोरण द्वार दिखने को मिले। रुपौली में हाल ही में एक स्थानीय नेता-व्यवसायी ने पार्टी का दामन थामा था। सुनने में आया कि वही पार्टी के रूपौली विधानसभा सीट से उम्मीदवार होगा।

प्रशांत किशोर की सभा में मनोरंजन का भी खास ख्याल रखा जाता है। जबतक वे मंच तक रोड शो करते नहीं पहुंचते हैं, तबतक कोई न गायक लोगों को गीत सुनाता रहता है। यहां भी एक गायक आया हुआ था, काफी कम उम्र का लड़का था जो भोजपुरी में गाना सुना रहा था।

सभा स्थल में लोगों की भीड़ अच्छी खासी थी, इवेंट को सफल करने के लिए प्रशांत किशोर की टीम लगी हुई थी।

इनकी सभा को देखते हुए हम 2014 के मोदी की रैलियों के इंतजामात को याद करने लगे। कुछ-कुछ ऐसा ही तब प्रशांत किशोर भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के लिए किया करते थे।

खैर, प्रशांत किशोर की हर जनसभा में सभा स्थल से पहले आपको पंक्तिबद्ध जेसीबी देखने को मिल जाएगी। 

आप सोच रहे होंगे कि आखिर जेसीबी क्यों? दरअसल जेसीबी से फूल बरसाए जाते हैं प्रशांत किशोर पर। प्रशांत की पॉलिटिकल छवि को जेसीबी से एक अलग मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश शायद उनकी इवेंट टीम कर रही हो।

यह सबकुछ प्रशांत किशोर के इवेंट टीम से जुड़े लोग की देखरेख में होता है। उनके काफिले में मीडिया वैन की तरह एक गाड़ी चलती है , जो उनकी यात्रा को कवर करती है। हर कुछ को काफी नजदीक से फिल्माया जाता है। फूलों की बरसात और इसी बीच प्रशांत किशोर का गाड़ी के ऊपर आना, हाथ उठाकर अभिभावदन करना, यह सब स्क्रिप्टनुमा आपको नजर आएगा।

प्रशांत किशोर जो कुछ कर रहे हैं अपनी सभाओं में, वह नया नहीं है। दरअसल यह सब अलग अंदाज में वे पहले ही नेताओं के लिए कर चुके हैं। इस बार कुछ अलग तरीके से वे अपने लिए करवा रहे हैं।

यदि आप प्रशांत किशोर की पॉलिटिक्स और उनके इवेंट मैनेजमेंट को फॉलो कर रहे होंगे तो आपको कुछ ऐसे चेहरे भी दिखेंगे, जिन्हें प्रशांत किशोर के साथ हर जगह देखते होंगे। वह चाहे पटना का शेखपुरा हाउस हो या फिर पूर्णिया का रूपौली। दरअसल उनकी टीम लगातार कैंपेंन में लगी है और टीम लीडर हर मोर्चे पर आपको दिख जाएंगे, प्रशांत किशोर के संग।

प्रशांत किशोर के भाषणों पर आप ध्यान देंगे तो कंटेंट में किसी तरह का बदलाव आपको नजर नहीं आएगा। बेहद ही गुस्से से संग वे हर जगह खुद मोर्चा संभाल लेते हैं और मंच पर अन्य लोगों को ज्यादा स्पेस न देकर खुद बिहार की बदहाली पर बोलने लग जाते हैं। यह उनका कैंपेंन स्टाइल है, जहां एक चेहरा सब पर हावी होता है और लोग उस चेहरे को उम्मीद से देखने लग जाते हैं।
आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि डिजिटल स्पेस पर प्रशांत किशोर सबसे अधिक मुखर दिखते हैं। रील से लेकर उनके लंबे -लंबे भाषणों से डिजिटल स्पेस ‘पीला’ हुआ पड़ा है। दरअसल पीले रंग को प्रशांत किशोर ने चुना है और इसी रंग को उन्होंने अपना राजनीतिक हथियार भी बनाया है।

प्रशांत किशोर की सभाओं में यूट्यूबर सबसे अधिक दिखते हैं। रूपौली में भी ऐसा ही दिखा। इससे पहले किशनगंज में भी यही लोग दिखे थे।

दरअसल प्रशांत किशोर की मीडिया मैनेजमेंट टीम मैन स्ट्रीम मीडिया से अधिक यूट्यबर और डिजिटल इंफ्लयूंसर को स्पेस देती है। हाल ही में पटना के शेखपुरा हाउस, जहां प्रशांत किशोर रहते हैं, वहां सोशल मीडिया इंफ्लयूंसर का जमावाड़ा लगवाया गया था और वर्कशॉप के जरिए उन्हें खूब ज्ञान दिया गया। कई लोगों को मीडिया किट् भी दिया गया था।

इन सब चीजों को ध्यान से देखते हुए जब आप प्रशांत किशोर की सभाओं में दाखिल होते हैं तो महसूस करते हैं कि बहुत कुछ शानदार तरीके से मैनेज किया जा चुका है। भीड़ आसानी से पहुंच रही है, भोजपुरी गीतों के जरिए भीड़ का मनोरंजन हो रहा है। भीड़ के एक हिस्से में मोबाइल और माइक लिए लोग रील बनाने में लगे हैं, मंच पर भी कुछ लोग लगातार वीडियो बना रहे हैं, लाइव वीडियो फेसबुक पर स्ट्रीम किया जा रहा है.... सबलोगों को प्रशांत किशोर सेल्फी दे रहे हैं, वह तस्वीर सोशल मीडिया को गुलजार कर रही है।

यह सब आपको प्रशांत किशोर की हर सभा में देखने को मिलेगी। भीड़ के बीच बने पंडाल में प्रशांत लोगों से सीधा संवाद स्थापित करते हैं, वे पहले दिन से ही आक्रमक छवि बनाए हुए हैं, गुस्से में ही संबोधन करते हैं। यह सब कुछ भीड़ को काफी पसंद आ रहा है, क्योंकि गुस्सा तो ग्राउंड में है ही।

वैसे इन सब बातों में जो चीज प्रशांत किशोर की सभा को आकर्षक बनाती है वह है पीले रंग का जेसीबी। जेसीबी से फूल फेंकते लोगों की कहानी दरअसल भीड़ को फिल्मी लगती है। प्रशांत किशोर जानते हैं कि भीड़ को कैसे मैनेज किया जाता है, सड़क से लेकर सभा स्थल तक।

हिंदी दिवस- रेणु के गांव से !

हिंदी की दुनिया जिनसे समृद्ध हुई है, उनमें एक नाम फणीश्वर नाथ रेणु का भी है। रेणु हिंदी समाज के उन लोगों में से थे, जिन्हें अपने गांव से इश्क था। वे पटना से अक्सर अपने गांव आ जाया करते थे।

हम जैसे लोग भी अक्सर रेणु के गांव घूम आते हैं। बिहार के अररिया जिला में एक गांव है औराही हिंगना, यही है रेणु का ठिकाना।  

गांव से चंद किलोमीटर की दूरी से असम के सिलचर से गुजरात के पोरबंदर को जोड़ने वाली ईस्ट-वेस्ट कॉरिडोर की फोरलेन रोड भी गुजरती है। रोजाना हजारों छोटी-बड़ी गाड़ियां दौड़ती है।

हमारी नजर टकराती है हाइवे से सटे सीमेंट के सादे सपाट द्वार पर ,जिसे रेणु द्वार कहा जाता है। वहां से थोड़ा आगे बढ़ता हूं तो सिमराहा बाजार आता है, रेणु के गांव का हाट-बाजार। यहां किसी महामहिम के कर कमलों से अनावृत रेणु की सुनहरी आदमकद प्रतिमा देखने को मिलती है। और फिर इसके आगे है - रेणु का गांव औराही हिंगना।

रेणु के गांव में रेणु साहित्यकार के तौर पर नहीं के बाराबर दिखते हैं। औराही हिंगना में रेणु के नाम पर द्वार, प्रतिमा और एक शोध संस्थान के भवन के अलावा और कुछ नहीं दिखेगा।

तो सवाल उठता है कि लेखक की स्मृति किस रुप में गांव में जीवित है, तो जवाब एक ही है, किसान !

रेणु अपनी माटी में लेखक से नहीं किसान परिवार से पहचाने जाते हैं। आप उनके गांव जिस भी रास्ते से प्रवेश करेंगे, आपको माइल स्टोन पर रेणु गेट का नाम दिख ही जाएगा। लेकिन उनके साहित्य को अंकित करने वाला कुछ भी आपको दरो-दिवार भी नजर नहीं आएगा।

हालांकि उनका घर उनके साहित्य को बखूबी जी रहा है। आप किसी भी ऐसे व्यक्ति से पूछ लें, जो रेणु के घर-आंगन गया हो, वह यही कहता मिलेगा कि रेणु के घर में कुछ है,  जो हर किसी के मन को छू जाता है।

शायद उनके परिवार का आत्मीय व्यवहार। शायद उनके अपने कमरे का साक्षात दर्शन। शायद रास्ते में लहलहाते हुए खेल, आंखों में गढ़ती हुई हरियाली, खेतों के बीच पेड़ों के गुलदस्ते।

आंचलिकता के जादूगर फणीश्वरनाथ रेणु का अपने गांव औराही हिंगना से बेहद लगाव था। तमाम व्यस्तताओं के बावजूद हर 6 महीने पर गांव जरूर आया करते थे।

फणीश्वरनाथ रेणु अपनी कुटिया में बैठकर शब्दों को पिरोते थे। आज भी रेणु का वो कुटिया और उनके सामानों को विरासत के रूप में परिवार वाले सहेजकर रखे हुए हैं, जो दुनिया के शोधकर्ताओं को आकर्षित करता है।

समय के हिसाब से रेणु के ग्रामीण अंचल में बहुत कुछ बदल गया है और बहुत कुछ बदलने के कगार पर है। इन सबके बीच नहीं बदला है तो रेणु की वो कुटिया। फूस और पुआल से बना आशियाने का छत तो बांस की टट्टी पर मिट्टी लपेटे दीवाल खड़ा है।

आंचलिकता वाली ग्रामीण परिवेश की चरित्र चित्रण आज भी विद्यमान है। समय के अनुरूप छत पर नये खर (पुआल) चढ़ाये जाते हैं तो दीवाल से धूसरित हो जाती मिट्टी के लेप को भी नये लेप से समेट लिया जाता है।

इस विरासत को बचाये रखने में स्वयं रेणु के पुत्र पद्म पराग राय वेणु,अपराजित राय अप्पू और दक्षिणेश्वर राय पप्पू के साथ उनकी बहुएं लगी रहती हैं।

रेणु के गांव औराही हिंगना में विकास की बयारें बही है। यातायात के रूप में रेलवे और सड़क मार्ग की भी सुविधाएं हैं। 'परती परिकथा' की बालूचर वाली भूमि पर पक्की सड़कें हो गयी है। गांव में शिक्षा के लिए प्राइमरी, मिडल से लेकर हाई स्कूल तक आ गये हैं। वहीं चंद दूरी पर ही सिमराहा में रेणुजी के नाम से ही इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गया है।

तो समय निकालकर आप भी देख आईए, अपने हिंदी के लेखकों का गाम-घर और महसूस करिए अपनी हिंदी को।

हिंदी दिवस- दिनकर के गांव से !



राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि सिमरिया को एक साहित्यिक तीर्थभूमि के रूप में जाना जाता है। यहां की मिट्टी को नमन करने हर साल देश के नामचीन साहित्यकार, कवि, आलोचक, साहित्य प्रेमी आते हैं।
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इस हिंदी दिवस हमने सोचा कि उन गांवों की यात्रा की जाए, जिनसे अपनी हिंदी समृद्ध हुई है। हम निकल पड़े राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के गांव की ओर। बिहार के बेगूसराय जिला स्थित गंगा किनारे एक ऐसे गांव को देखने, जिसकी माटी में हिंदी रची बसी है।

आप कल्पना कीजिए एक ऐसे गांव की, जिसके हर घर पर कविता की कोई न कोई पंक्ति लिखी हो! क्या आपने कभी ऐसे किसी गांव की यात्रा की है, जिसके हर घर की दीवार पर काव्य पंक्तियाँ लिखी हुई हों।

सच कहूं, मुझे तो ऐसा गांव देखने का सौभाग्य मिला है। मैं मौजूद हूं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के गांव में, सिमरिया ग्राम में ! जिसके बारे में खुद दिनकर लिख गए हैं –
“ हे जन्मभूमि शत बार धन्य !
तुझसा न ‘सिमरियाघाट’ अन्य ”


सिमरिया गांव में रामधारी सिंह दिनकर का बचपन बीता। इस छोटे से गांव में पले बढ़े दिनकर का राष्ट्रकवि तक का सफर काफी रोचक और ज्ञानवर्द्धक है। राष्ट्रकवि दिनकर से जुड़ी यादों को सहेजने के लिए सिमरिया गांव के लोगों ने अनोखा उपाय ईजाद किया है।

दरअसल, यहां के लगभग सभी भवनों पर दिनकर का नाम है। सरकारी और गैर सरकारी भवनों पर दिनकर जी की रचनाएं और कविताएं उकेरी गई हैं। जैसे ही आप गांव में प्रवेश करेंगे, उनकी कविताओं को पढ़कर रोमांचित हो उठेंगे और तब आपको लगेगा कि जिनसे हिंदी अपनी समृद्ध हुई, उनकी हिंदी को उनका गांव असल में कितनी शिद्दत से जी रहा है।

हर साल दिनकर की स्मृति में उनकी जन्मभूमि के जिला मुख्यालय बेगूसराय में सरकारी कार्यक्रम होता है, जिसका अच्छा – खासा बजट है लेकिन उनके गांव में ग्रामीण सरकार के सहयोग से नहीं बल्कि जन सहयोग से कार्यक्रम आयोजित करते हैं।

गांव घूमते हुए मैंने यह भी देखा कि सिमरिया का एक भी घर ऐसा नहीं था जिसकी दीवार पर दिनकर की काव्य पंक्तियाँ न लिखीं हों।

सितंबर महीने में दिनकर की स्मृति में आस-पास के स्कूलों में दिनकर काव्य प्रतियोगिता कराई जाती है और सफल विद्यार्थियों को पुरस्कृत किया जाता है।

जब यह सब कुछ मुझे स्थानीय प्रवीण प्रियदर्शी जी बता रहे थे, मैं चुपचाप सुन रहा था और सोच रहा था कि काश भारत का हर गांव सिमरिया होता।

ग्रामीणों ने दिनकर जी की स्मृति में ‘राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विकास समिति’ का गठन किया है। यह समिति हर साल 12 सितंबर से 24 सितंबर के बीच कार्यक्रम आयोजित करती है। सिमरिया के आसपास जितने भी स्कूल हैं, उनमें दिनकर साहित्य का प्रचार प्रसार किया जाता है और फिर एक प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। पिछले साल इसमें 600 बच्चों ने हिस्सा लिया था।
 
गांव में दिनकर के नाम से एक समृद्ध पुस्तकालय भी है, जिसमें 20 हजार से अधिक किताबें हैं। इसका संचालन ग्रामीण करते हैं।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि दिनकर जयंती के अवसर पर सिमरिया गांव में आयोजित होने वाले कार्यक्रम का खर्च ग्रामीण उठाते हैं, जो भी अतिथि आते हैं, उनके आने जाने के खर्च से लेकर ठहरने तक का खर्च ग्रामीण वहन करते हैं।

अपने ग्रामीण कवि के नाम पर ये लोग सरकार से किसी तरह की सहायता नहीं लेते हैं।

इस हिंदी दिवस आप भी घूम आइए, अपने आसपास के हिंदी लेखकों के गांव, ताकि समझ सकें कि जिस हिंदी की हम बात कर रहे हैं, जिस हिंदी से देश चल रहा है, आखिर उस हिंदी को समृद्ध करने वाले का गांव किस मोड़ पर खड़ा है।   

Sunday, September 07, 2025

राहुल की बिहार यात्रा के बाद ‘बिहार में कांग्रेस’ !



एक पार्टी जो पिछले तीन दशक से बिहार की सत्ता वाली राजनीति से दूर रही, जिसे राज्य की जनता ने चुनावों में लगभग नकार दिया था, इस बार सड़कों पर अपने सहयोगी दलों के साथ रंग में दिखी। राहुल गांधी के नेतृत्व में वोटर अधिकार यात्रा में कांग्रेस के झंडे से पूरा बिहार पटा नजर आया।

नए दौर के लोग भले ही बिहार में कांग्रेस को शून्य मानते रहे हैं लेकिन एक वक्त था जब इस पार्टी का बिहार में दबदबा हुआ करता था। राज्य में कांग्रेस ने अलग-अलग मौकों पर सरकार बनाई। हालांकि, कांग्रेस का यह जलवा 1985 के विधानसभा चुनाव के बाद ढलान पर आ गया और इसके बाद से अब तक राज्य में कभी भी कांग्रेस अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई है। उसके आखिरी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र 1990 में थे। तब से लेकर अब तक कांग्रेस राज्य में सत्ता और विपक्ष दोनों जगह बेहद ही कमजोर स्थिति में रही है। लोगबाग तो यहां तक कहते हैं कि लालू यादव की पिछलग्गू पार्टी है कांग्रेस!

हालांकि लंबे अंतराल के बाद राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा की वजह से कांग्रेस ने न केवल बिहार में बल्कि देश में सुर्खियां बटोरी है, लेकिन क्या इस एक यात्रा से बिहार में कांग्रेस जीरो से हीरो बन जाएगी ?

याद करिए, 2020 के बिहार चुनाव में कांग्रेस ने 70 में से 19 सीटें जीतीं। यानी उसका स्ट्राइक रेट करीब 27 फीसदी का रहा, जो कि सहयोगी दलों- राजद (स्ट्राइक रेट- 52%) और भाकपा माले (63.15), भाकपा (33.33) और माकपा (50%) से कम रहा था। ऐसे में कांग्रेस को उनके सहयोगी दल भला क्यों अधिक सीट देंगे।

और यदि आपके पास अधिक सीटें नहीं रहेंगी तो भला क्यों आपको गठबंधन ड्राइविंग सीट पर बैठने को देगी। या फिर इतना ही भरोसा है तो अकेले मैदान में उतरा जाए, पार्टी में जान फूंका जाए !

यदि आप राहुल गांधी की अगुवाई वाली वोटर अधिकार यात्रा के इवेंट पर नजर घुमाएंगे तो देखेंगे कि इस यात्रा में अलग-अलग दलों के नेताओं ने हिस्सा लिया लेकिन चेहरा लालू के बेटे नहीं बल्कि राहुल गांधी रहे। लालू पुत्र तेजस्वी यादव के संग वीआईपी के मुकेश सहनी भी प्रमुखता से दिखाई देते रहे। दूसरी तरफ राज्य के बाहर की भी कई पार्टियों ने यात्रा में राहुल का साथ दिया। इनमें द्रमुक के मुखिया और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन से लेकर उद्धव शिवसेना के संजय राउत तक शामिल रहे।

राहुल की यात्रा को कवर करते हुए अहसास हुआ कि भले ही यह वे वोटर अधिकार की बात कर रहे हैं लेकिन उनका पूरा फोकस बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव पर था और साथ ही गठबंधन में यह बताना था कि बिहार पॉलिटिक्स में अब ब्रांड नैम राहुल गांधी हैं न कि लालू !

इस यात्रा का सकारात्मक पक्ष यह भी रहा कि बिहार में चुनाव आयोग की तरफ से कराए जा रहे विशेष गहन पुनर्निरीक्षण (एसआईआर) को लेकर महागठबंधन के सभी साथी साथ दिखे।
वोटर अधिकार यात्रा के दौरान अलग-अलग जिलों में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने आरोप लगाया कि यह सिर्फ वोटरों के नाम काटने का अभियान नहीं, बल्कि ऐसे समुदायों को सीधे तौर पर निशाना बनाने की साजिश है, जो इन दलों को वोट देते हैं।

राहुल ने 'वोट चोर गद्दी छोड़' का नारा दिया, जो कि पूरी रैली के दौरान गूंजता रहा।

हम इस बात को नकार नहीं सकते हैं कि राहुल की वोटर अधिकार यात्रा ने हजारों की संख्या में लोगों को अपनी तरफ आकर्षित किया। हालांकि, उनकी यात्रा ने विवादों को भी उसी तरह अपनी तरफ खींचा।

राहुल की रैली में सबसे बड़ा विवाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर की गई एक आपत्तिजनक टिप्पणी के बाद उभरा। दरअसल, हुआ कुछ यूं कि जब राहुल की रैली दरभंगा जिले में थी, तब एक सभा के बाद भाजपा के खिलाफ जमकर नारेबाजी हो रही थी। यही नारेबाजी अचानक प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक शब्दों के इस्तेमाल में बदल गई। भाजपा ने इसे प्रधानमंत्री की मां के खिलाफ टिप्पणी बताते हुए राहुल की रैली पर जबरदस्त वार किए। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से लेकर भाजपा आलाकमान ने इसे ओछी हरकत करार दिया।

खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को इसे लेकर दुख जाहिर किया और कहा कि यह बिहार की मां-बेटी और बहनों का अपमान है। मां को गाली देने से बड़ा पाप और कुछ नहीं हो सकता। इस पूरे विवाद को लेकर भाजपा ने 4 सितंबर को बिहार बंद का आह्वान किया था।

राहुल की यात्रा में दूसरा विवाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के आने से भड़का। दरअसल, स्टालिन 27 अगस्त को मुजफ्फरपुर में यात्रा से जुड़े थे। इसे लेकर भाजपा ने सवाल उठाते हुए कहा था कि द्रमुक नेता सनातन धर्म को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी करते हैं, बिहार के लोगों को गाली देते हैं और राजद-कांग्रेस के लोग इन्हें अपने साथ यात्रा में लेकर चलते हैं।

दरअसल, स्टालिन की पार्टी के सांसद दयानिधि मारन का दिसंबर 2023 में एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें उन्होंने बिहार के लोगों को टॉयलेट साफ करने वाला करार दिया था। उन्होने कहा था कि यूपी-बिहार के लोग, जिन्होंने सिर्फ हिंदी पढ़ी है, वे तमिलनाडु में सड़क निर्माण करते हैं और टॉयलेट साफ करने का काम करते हैं। वहीं, अंग्रेजी जानने वाले बच्चों को आईटी सेक्टर में अच्छी तनख्वाह मिलती है।

दूसरी तरफ स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन भी सनातन धर्म को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं।

इस यात्रा को लेकर बिहार में इन दिनों खूब बातें हो रही है। आप जहां चले जाएं, लोग पूछ रहे हैं कि क्या इस बार लालू यादव कांग्रेस को अधिक सीटें देंगे ?
यह तो आने वाले कुछ दिन में पता चल ही जाएगा कि क्या राहुल की यात्रा की वजह से उनकी पार्टी को महागठबंधन में सीटें अधिक मिलती है या नहीं लेकिन यह भी सच है कि राहुल गांधी को अभी बिहार में और मेहनत करने की जरूरत है।

बिहार में कांग्रेस का उदय सिर्फ राहुल गांधी की यात्रा और उनके ब्रांड नाम के सहारे नहीं हो सकता है। बिहार में पार्टी का संगठन लंबे समय से जर्जर हालत में है। जिला दफ्तर लगभग खाली पड़े हैं, कार्यकर्ता लगातार दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं, अभी भी उनकी पार्टी में ऐसे लोग शामिल हो रहे हैं टिकट के लिए जिनका कांग्रेस से कभी कोई लेना-देना नहीं रहा है। राहुल गांधी के लिए यह कड़वा सच है कि पूरे राज्य में कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व राजद की छाया में दबा हुआ है।

जनमानस के बीच कांग्रेस की इस तस्वीर को बदलने के लिए राहुल गांधी को लगातार बिहार आना होगा। बिहार विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे का फॉर्मूला जो तय हो, लेकिन कांग्रेस को उन विधानसभा सीटों को भी अपने खाते में लेना होगा, जो एक दौर में उनका गढ़ हुआ करता था।

वोटर अधिकार यात्रा में उमड़ी भीड़ एक तरह से कांग्रेस का शक्ति प्रदर्शन भी था। राहुल गांधी भले कुछ न बोल रहे हों लेकिन भीड़ के जरिए वह लालू यादव को यह भी संदेश देने का प्रयास कर रहे थे कि आगामी बिहार चुनाव में टिकट बंटवारे में कांग्रेस को हल्के में नहीं लिया जाए।

Tuesday, August 19, 2025

कुछ बातें कुछ यादें कुछ सवाल

कुछ किताबें आंगन के कोने में लगे हरसिंगार फूल के पुराने गाछ की तरह घर में दाखिल होती है। सितम्बर अक्टूबर में जब यह फूल आँगन को अपनी खुशबू में बाँध लिया करती थी, ठीक उसी समय हर सुबह गोबर से आँगन को निप भी दिया जाता था ताकि हरसिंगार गिरे तो उसकी पवित्रता कायम रहे! एक- एक फूल बांस की बनी फूल डाली में बिछा जाता था!
हम सबके जीवन से बड़ा अंगना कब गायब हो गया और गाम घर कब शहर में दाखिल हो गया, पता ही नहीं चला लेकिन हमारी आपकी स्मृति को भला हमने कौन छिन सकता है? इन्हीं सब स्मृति को सोशल मीडिया के आँगन में बिखरने वाली एक लेखिका की किताब हाथ आई है!

किताब का नाम है- 'कुछ बातें कुछ यादें कुछ सवाल '
इ समाद प्रकाशन से आई इस किताब की लेखिका हैं रंजना मिश्रा। Ranjana Mishra 

एक पाठक के तौर पर यह किताब मेरे लिए एक पुरानी डायरी की तरह है, जिसमें कुछ भी समाज से छुपाने की कोशिश नहीं की गई है। रोजमर्रा के जीवन में लेखिका ने जो कुछ भी भोगा, उसे हूबहू लिखते चली गई, यह साहस का काम है! 

हर की स्मृति में कुछ बातें होती है लेकिन उन बातों को फेसबुक और फिर किताब की शक्ल में ढाल देना, सबके बस की बात नहीं है।

रंजना मिश्रा ने संयुक्त परिवारों के टूटन को शायद नजदीक से देखा है। ठीक उसी अंदाज में नई पीढ़ी को एक्सप्रेस वे पर दौड़ते भागते भी वह शायद देख रही है। आत्म केंद्रित होती नई पीढ़ी के बीच बुजुर्गों के एकाकीपन को भी वह महसूस कर रही है! इन्हीं सब कटु सत्य को शब्दों के जरिए पन्ने में भरने का काम उन्होंने बखूबी किया है। 

इस किताब को यदि एक वाक्य में ढालने की बात हो तो मैं यही कहूंगा कि 'लेखिका की स्मृति में अतीत का एक ऐसा स्टाम्प लगा हुआ है,  जिसमें अनगिनत कहानियां भरी हुई है।'

आप इस किताब को किसी भी पन्ने से शुरू कर सकते हैं! ठीक फोटो एल्बम की तरह। स्मृति तो तस्वीर की ही माफ़िक होती है न! घर में रखे पुराने अल्बम की तस्वीर को देखते हुए हम अतीत में डूब जाते हैं। 

एक बेटी, एक बहू, एक माँ और जब ये 'तीनों' मिलकर डायरी लिख दे तो ? अपने लिए रंजना मिश्रा किताब ऐसी ही एक डायरी है,  हरसिंगार फूल माफ़िक!

Wednesday, July 02, 2025

गांव में आनंद बरखा

पिछली बारिश में ढेर सारे कंदब के पौधे लगाए थे। इस बारिश में ये पौधे खिल उठे हैं। चनका रेसीडेंसी के अहाते के आगे कदंब के पेड़ बारिश में भींगकर और भी सुंदर दिखने लगे हैं। पंक्तिबद्ध इन कदंब के पेड़ को देखकर लगता है जीवन में ‘एकांत’ कुछ भी नहीं होता है, जीवन ‘सामूहिकता’ का पाठ पढ़ाती है।
खेत घूमकर लौट आया हूं, साँझ होने चला है, पाँव कीचड़ में रंगा है। अपने ही क़दम से माटी की ख़ुश्बू आ रही है। पाँव को पानी से साफ़कर बरामदे में दाख़िल होता हूं, फिर एक़बार आगे देखना लगता हूं। हल्की हवा चलती है, नीम का किशोरवय पौधा थिरक रहा है। यही जीवन है, बस आगे देखते रहना है। 

अहा! ज़िंदगी पत्रिका के जुलाई- 25 अंक में अपनी यह रचना प्रकाशित हुई है। 

[अहा ज़िंदगी पत्रिका दैनिक भास्कर एप और वेबसाइट पर ईपेपर के रूप में पढ़ी जा सकती है।]