Sunday, September 07, 2025

राहुल की बिहार यात्रा के बाद ‘बिहार में कांग्रेस’ !



एक पार्टी जो पिछले तीन दशक से बिहार की सत्ता वाली राजनीति से दूर रही, जिसे राज्य की जनता ने चुनावों में लगभग नकार दिया था, इस बार सड़कों पर अपने सहयोगी दलों के साथ रंग में दिखी। राहुल गांधी के नेतृत्व में वोटर अधिकार यात्रा में कांग्रेस के झंडे से पूरा बिहार पटा नजर आया।

नए दौर के लोग भले ही बिहार में कांग्रेस को शून्य मानते रहे हैं लेकिन एक वक्त था जब इस पार्टी का बिहार में दबदबा हुआ करता था। राज्य में कांग्रेस ने अलग-अलग मौकों पर सरकार बनाई। हालांकि, कांग्रेस का यह जलवा 1985 के विधानसभा चुनाव के बाद ढलान पर आ गया और इसके बाद से अब तक राज्य में कभी भी कांग्रेस अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई है। उसके आखिरी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र 1990 में थे। तब से लेकर अब तक कांग्रेस राज्य में सत्ता और विपक्ष दोनों जगह बेहद ही कमजोर स्थिति में रही है। लोगबाग तो यहां तक कहते हैं कि लालू यादव की पिछलग्गू पार्टी है कांग्रेस!

हालांकि लंबे अंतराल के बाद राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा की वजह से कांग्रेस ने न केवल बिहार में बल्कि देश में सुर्खियां बटोरी है, लेकिन क्या इस एक यात्रा से बिहार में कांग्रेस जीरो से हीरो बन जाएगी ?

याद करिए, 2020 के बिहार चुनाव में कांग्रेस ने 70 में से 19 सीटें जीतीं। यानी उसका स्ट्राइक रेट करीब 27 फीसदी का रहा, जो कि सहयोगी दलों- राजद (स्ट्राइक रेट- 52%) और भाकपा माले (63.15), भाकपा (33.33) और माकपा (50%) से कम रहा था। ऐसे में कांग्रेस को उनके सहयोगी दल भला क्यों अधिक सीट देंगे।

और यदि आपके पास अधिक सीटें नहीं रहेंगी तो भला क्यों आपको गठबंधन ड्राइविंग सीट पर बैठने को देगी। या फिर इतना ही भरोसा है तो अकेले मैदान में उतरा जाए, पार्टी में जान फूंका जाए !

यदि आप राहुल गांधी की अगुवाई वाली वोटर अधिकार यात्रा के इवेंट पर नजर घुमाएंगे तो देखेंगे कि इस यात्रा में अलग-अलग दलों के नेताओं ने हिस्सा लिया लेकिन चेहरा लालू के बेटे नहीं बल्कि राहुल गांधी रहे। लालू पुत्र तेजस्वी यादव के संग वीआईपी के मुकेश सहनी भी प्रमुखता से दिखाई देते रहे। दूसरी तरफ राज्य के बाहर की भी कई पार्टियों ने यात्रा में राहुल का साथ दिया। इनमें द्रमुक के मुखिया और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन से लेकर उद्धव शिवसेना के संजय राउत तक शामिल रहे।

राहुल की यात्रा को कवर करते हुए अहसास हुआ कि भले ही यह वे वोटर अधिकार की बात कर रहे हैं लेकिन उनका पूरा फोकस बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव पर था और साथ ही गठबंधन में यह बताना था कि बिहार पॉलिटिक्स में अब ब्रांड नैम राहुल गांधी हैं न कि लालू !

इस यात्रा का सकारात्मक पक्ष यह भी रहा कि बिहार में चुनाव आयोग की तरफ से कराए जा रहे विशेष गहन पुनर्निरीक्षण (एसआईआर) को लेकर महागठबंधन के सभी साथी साथ दिखे।
वोटर अधिकार यात्रा के दौरान अलग-अलग जिलों में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने आरोप लगाया कि यह सिर्फ वोटरों के नाम काटने का अभियान नहीं, बल्कि ऐसे समुदायों को सीधे तौर पर निशाना बनाने की साजिश है, जो इन दलों को वोट देते हैं।

राहुल ने 'वोट चोर गद्दी छोड़' का नारा दिया, जो कि पूरी रैली के दौरान गूंजता रहा।

हम इस बात को नकार नहीं सकते हैं कि राहुल की वोटर अधिकार यात्रा ने हजारों की संख्या में लोगों को अपनी तरफ आकर्षित किया। हालांकि, उनकी यात्रा ने विवादों को भी उसी तरह अपनी तरफ खींचा।

राहुल की रैली में सबसे बड़ा विवाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर की गई एक आपत्तिजनक टिप्पणी के बाद उभरा। दरअसल, हुआ कुछ यूं कि जब राहुल की रैली दरभंगा जिले में थी, तब एक सभा के बाद भाजपा के खिलाफ जमकर नारेबाजी हो रही थी। यही नारेबाजी अचानक प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक शब्दों के इस्तेमाल में बदल गई। भाजपा ने इसे प्रधानमंत्री की मां के खिलाफ टिप्पणी बताते हुए राहुल की रैली पर जबरदस्त वार किए। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से लेकर भाजपा आलाकमान ने इसे ओछी हरकत करार दिया।

खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को इसे लेकर दुख जाहिर किया और कहा कि यह बिहार की मां-बेटी और बहनों का अपमान है। मां को गाली देने से बड़ा पाप और कुछ नहीं हो सकता। इस पूरे विवाद को लेकर भाजपा ने 4 सितंबर को बिहार बंद का आह्वान किया था।

राहुल की यात्रा में दूसरा विवाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के आने से भड़का। दरअसल, स्टालिन 27 अगस्त को मुजफ्फरपुर में यात्रा से जुड़े थे। इसे लेकर भाजपा ने सवाल उठाते हुए कहा था कि द्रमुक नेता सनातन धर्म को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी करते हैं, बिहार के लोगों को गाली देते हैं और राजद-कांग्रेस के लोग इन्हें अपने साथ यात्रा में लेकर चलते हैं।

दरअसल, स्टालिन की पार्टी के सांसद दयानिधि मारन का दिसंबर 2023 में एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें उन्होंने बिहार के लोगों को टॉयलेट साफ करने वाला करार दिया था। उन्होने कहा था कि यूपी-बिहार के लोग, जिन्होंने सिर्फ हिंदी पढ़ी है, वे तमिलनाडु में सड़क निर्माण करते हैं और टॉयलेट साफ करने का काम करते हैं। वहीं, अंग्रेजी जानने वाले बच्चों को आईटी सेक्टर में अच्छी तनख्वाह मिलती है।

दूसरी तरफ स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन भी सनातन धर्म को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं।

इस यात्रा को लेकर बिहार में इन दिनों खूब बातें हो रही है। आप जहां चले जाएं, लोग पूछ रहे हैं कि क्या इस बार लालू यादव कांग्रेस को अधिक सीटें देंगे ?
यह तो आने वाले कुछ दिन में पता चल ही जाएगा कि क्या राहुल की यात्रा की वजह से उनकी पार्टी को महागठबंधन में सीटें अधिक मिलती है या नहीं लेकिन यह भी सच है कि राहुल गांधी को अभी बिहार में और मेहनत करने की जरूरत है।

बिहार में कांग्रेस का उदय सिर्फ राहुल गांधी की यात्रा और उनके ब्रांड नाम के सहारे नहीं हो सकता है। बिहार में पार्टी का संगठन लंबे समय से जर्जर हालत में है। जिला दफ्तर लगभग खाली पड़े हैं, कार्यकर्ता लगातार दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं, अभी भी उनकी पार्टी में ऐसे लोग शामिल हो रहे हैं टिकट के लिए जिनका कांग्रेस से कभी कोई लेना-देना नहीं रहा है। राहुल गांधी के लिए यह कड़वा सच है कि पूरे राज्य में कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व राजद की छाया में दबा हुआ है।

जनमानस के बीच कांग्रेस की इस तस्वीर को बदलने के लिए राहुल गांधी को लगातार बिहार आना होगा। बिहार विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे का फॉर्मूला जो तय हो, लेकिन कांग्रेस को उन विधानसभा सीटों को भी अपने खाते में लेना होगा, जो एक दौर में उनका गढ़ हुआ करता था।

वोटर अधिकार यात्रा में उमड़ी भीड़ एक तरह से कांग्रेस का शक्ति प्रदर्शन भी था। राहुल गांधी भले कुछ न बोल रहे हों लेकिन भीड़ के जरिए वह लालू यादव को यह भी संदेश देने का प्रयास कर रहे थे कि आगामी बिहार चुनाव में टिकट बंटवारे में कांग्रेस को हल्के में नहीं लिया जाए।

Tuesday, August 19, 2025

कुछ बातें कुछ यादें कुछ सवाल

कुछ किताबें आंगन के कोने में लगे हरसिंगार फूल के पुराने गाछ की तरह घर में दाखिल होती है। सितम्बर अक्टूबर में जब यह फूल आँगन को अपनी खुशबू में बाँध लिया करती थी, ठीक उसी समय हर सुबह गोबर से आँगन को निप भी दिया जाता था ताकि हरसिंगार गिरे तो उसकी पवित्रता कायम रहे! एक- एक फूल बांस की बनी फूल डाली में बिछा जाता था!
हम सबके जीवन से बड़ा अंगना कब गायब हो गया और गाम घर कब शहर में दाखिल हो गया, पता ही नहीं चला लेकिन हमारी आपकी स्मृति को भला हमने कौन छिन सकता है? इन्हीं सब स्मृति को सोशल मीडिया के आँगन में बिखरने वाली एक लेखिका की किताब हाथ आई है!

किताब का नाम है- 'कुछ बातें कुछ यादें कुछ सवाल '
इ समाद प्रकाशन से आई इस किताब की लेखिका हैं रंजना मिश्रा। Ranjana Mishra 

एक पाठक के तौर पर यह किताब मेरे लिए एक पुरानी डायरी की तरह है, जिसमें कुछ भी समाज से छुपाने की कोशिश नहीं की गई है। रोजमर्रा के जीवन में लेखिका ने जो कुछ भी भोगा, उसे हूबहू लिखते चली गई, यह साहस का काम है! 

हर की स्मृति में कुछ बातें होती है लेकिन उन बातों को फेसबुक और फिर किताब की शक्ल में ढाल देना, सबके बस की बात नहीं है।

रंजना मिश्रा ने संयुक्त परिवारों के टूटन को शायद नजदीक से देखा है। ठीक उसी अंदाज में नई पीढ़ी को एक्सप्रेस वे पर दौड़ते भागते भी वह शायद देख रही है। आत्म केंद्रित होती नई पीढ़ी के बीच बुजुर्गों के एकाकीपन को भी वह महसूस कर रही है! इन्हीं सब कटु सत्य को शब्दों के जरिए पन्ने में भरने का काम उन्होंने बखूबी किया है। 

इस किताब को यदि एक वाक्य में ढालने की बात हो तो मैं यही कहूंगा कि 'लेखिका की स्मृति में अतीत का एक ऐसा स्टाम्प लगा हुआ है,  जिसमें अनगिनत कहानियां भरी हुई है।'

आप इस किताब को किसी भी पन्ने से शुरू कर सकते हैं! ठीक फोटो एल्बम की तरह। स्मृति तो तस्वीर की ही माफ़िक होती है न! घर में रखे पुराने अल्बम की तस्वीर को देखते हुए हम अतीत में डूब जाते हैं। 

एक बेटी, एक बहू, एक माँ और जब ये 'तीनों' मिलकर डायरी लिख दे तो ? अपने लिए रंजना मिश्रा किताब ऐसी ही एक डायरी है,  हरसिंगार फूल माफ़िक!

Wednesday, July 02, 2025

गांव में आनंद बरखा

पिछली बारिश में ढेर सारे कंदब के पौधे लगाए थे। इस बारिश में ये पौधे खिल उठे हैं। चनका रेसीडेंसी के अहाते के आगे कदंब के पेड़ बारिश में भींगकर और भी सुंदर दिखने लगे हैं। पंक्तिबद्ध इन कदंब के पेड़ को देखकर लगता है जीवन में ‘एकांत’ कुछ भी नहीं होता है, जीवन ‘सामूहिकता’ का पाठ पढ़ाती है।
खेत घूमकर लौट आया हूं, साँझ होने चला है, पाँव कीचड़ में रंगा है। अपने ही क़दम से माटी की ख़ुश्बू आ रही है। पाँव को पानी से साफ़कर बरामदे में दाख़िल होता हूं, फिर एक़बार आगे देखना लगता हूं। हल्की हवा चलती है, नीम का किशोरवय पौधा थिरक रहा है। यही जीवन है, बस आगे देखते रहना है। 

अहा! ज़िंदगी पत्रिका के जुलाई- 25 अंक में अपनी यह रचना प्रकाशित हुई है। 

[अहा ज़िंदगी पत्रिका दैनिक भास्कर एप और वेबसाइट पर ईपेपर के रूप में पढ़ी जा सकती है।]

Friday, May 30, 2025

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले किसान की डायरी


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब बिहार में रोड शो कर रहे थे और फिर दूसरे दिन जनसभा को संबोधित करने में जुटे थे, ठीक उसी वक्त राज्य के सीमांत जिले के कुछ इलाकों में बेमौसम बारिश के कारण मक्का की फसल को समेटने वाले किसान भारी नुकसान की कहानी सुना रहे थे। लेकिन राजनीति का व्याकरण किसानों की व्यथा कथा से दूर ही रहना मुनासिब समझता है। ऐसे में किसानी कर रहे हम जैसे लोग अपना काम-धाम पूरा करने के बाद अपनी डायरी लिखने में जुट जाते हैं।

दरअसल देश में जब भी और जहां भी चुनाव होते हैं तो अपनी नजर सबसे पहले पंचायत स्तर पर ठहर जाती है। अभी कुछ महीने बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और मैं राज्य के सीमांत जिलों में बिखरे विधानसभा क्षेत्रों को पढ़ने समझने में लगा हूं। इन इलाकों में विधायकों और उनके क्षेत्रों को घूमते हुए अक्सर वार्ड सदस्य, जिला पार्षद, मुखिया जैसे ग्राउंड प्लेयर्स से गुफ्तगू करने लगता हूं। राजनीति में कॉरपोरेट कल्चर आने के बाद भले ही प्रचार-प्रसार या कहें पॉलिटिकल पीआर एजेंसियां चुनावी गुणा भाग करने लगी रहती है लेकिन आज भी ग्राउंड की सच्चाई जानने के लिए किसी भी विधानसभा क्षेत्र के हर एक वार्ड तक आपको पहुंचना ही पड़ेगा।

हाल ही में जब अररिया जिला के नक्शे में बंटे विधानसभा क्षेत्रों को देखने निकला तो अपनी गाड़ी रूक गई नरपतगंज विधानसभा में। बेस्वादी होती राजनीति के बीच स्वाद खोजने में जुटे हम जैसे लोग चुनाव के दौरान यात्रा और बातचीत को अहमियत देते हैं।

यादव और मुस्लिम मतदाताओं के प्रभुत्व वाला यह इलाका अपने लिए एक सैंपल की तरह है। यहां कुल 3 लाख 78 हजार मतदाता हैं, जिसमें 92 हजार मुस्लिम और 86 हजार से कुछ अधिक यादव मतदाता हैं। इस आंकड़े से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यहां की ‘पॉलिटिक्स’ कैसी होगी।

फिलहाल यहां से एक रिटायर्ड पुलिसकर्मी जय प्रकाश यादव भाजपा कोटे से विधायक हैं। 2014 में जय प्रकाश यादव भाजपा में शामिल हुए और 2020 में उन्हें पार्टी ने टिकट दिया। सीमांत जिले में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की पृष्ठभूमि के बिना  जय प्रकाश यादव को भाजपा ने अपना निशान देकर चुनाव में उतारा था। इसकी भी अलग ही कहानी है। उन्होंने 2020 विधानसभा चुनाव में 30 हजार से अधिक के अंतर से जीत दर्ज की। उन्होंने राजद के उम्मीदवार को हराने का काम किया। राजद ने भी यादव समुदाय से आने वाले को अनिल कुमार यादव को टिकट दिया था।

अररिया जिले की नरपतगंज विधानसभा सीट कई मायने में महत्वपूर्ण है। यहां कुल 14 बार चुनाव हुए हैं, जिनमें 13 बार यादव उम्मीदवार ने ही जीत दर्ज की है। 2009 के परिसीमन के बाद इस विधानसभा क्षेत्र का भूगोल बदल गया। इस विधानसभा क्षेत्र में अभी नरपतगंज प्रखंड की सभी 29 पंचायत व भरगामा प्रखंड की 15 पंचायत शामिल हैं। यह सुपौल जिले से सटा विधानसभा क्षेत्र है। 1962 में अस्तित्व में आने के बाद यहां से पहला विधायक बनने का सौभाग्य कांग्रेस के डूमरलाल बैठा को प्राप्त हुआ। खास बात यह कि पहले चुनाव में यह क्षेत्र सुरक्षित था, लेकिन इसके बाद यह सीट सामान्य हो गई।

इस सीट पर पहली बार वोटिंग 1962 में हुई। 1972 तक इस सीट पर कांग्रेस का ही कब्जा रहा। 2005 और 2010 के चुनाव में यह सीट बीजेपी के खाते में गई। 2010 के चुनाव में बीजेपी के देवंती यादव ने आरजेडी के अनिल कुमार यादव को हराया था। लेकिन 2015 के चुनाव में अनिल कुमार यादव विजयी रहे। 2020 में नरपतगंज सीट पर सीधी लड़ाई बीजेपी और आरजेडी के बीच रही। बीजेपी के जय प्रकाश यादव ने आरजेडी के अनिल कुमार यादव को पटखनी दी।

इन सब आंकड़ों से इतर जब हमने इस विधानसभा क्षेत्र के अलग अलग पंचायतों की यात्रा शुरु की तो लगा कि जाति और धर्म को लेकर ही इस इलाके में मतदाताओं की गोलबंदी है। खासकर यादव समुदाय और मुस्लिम। बिहार की राजनीति के हिसाब से लालू यादव की पार्टी एक समय में मुस्लिम और यादव को अपना वोट बैंक मानती थी लेकिन धीरे-धीरे इस समीकरण में भाजपा ने भी सेंध लगाने की कोशिश की। नरपतगंज विधानसभा क्षेत्र इस तथ्य का सबसे मजबूत उदाहरण है।

इस इलाके की राजनीति में संत महर्षि मेंही के अनुनायियों का भी खास प्रभाव रहा है। वर्तमान विधायक तो उन्हीं के अनुनायी हैं, जिसे यहां संत मत कह जाता है। खासकर यादव टोलों में तो आपको महर्षि मेंही का आश्रम मिल ही जाएगा। कई आश्रमों को नजदीक से देखते हुए और स्थानीय लोगों से बातचीत के आधार पर यह कहा जा सकता है कि महर्षि मेंही के अनुनायी स्थानीय विधायक का समर्थन कर रहे हैं। इसके पीछे एक तार विधायक के परिवार से भी जुड़ा है। उनके भाई महर्षि मेंही के केवल अनुनायी ही नहीं बल्कि वे उनके मुख्य आश्रम जो भागलपुर स्थित कुप्पा घाट में है, वहां रहते हैं। उन्होंने शादी नहीं की है और संत मत का प्रचार करते हैं।

संत मत के प्रचार प्रसार वाले इस इलाके में हमने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की नब्ज को भी टटोलने की कोशिश की। नरपतगंज बाजार में हमारी मुलाकात डॉ. मनोज साह से होती है। पेशे से चिकित्सक मनोज जी इलाके में संघ की गतिविधियों के प्रचार प्रसार से जुड़े हैं। उन्होंने बताया कि इस विधानसभा क्षेत्र में संघ सक्रिय है और शाखाएं भी लगती हैं। हाल ही में प्रांत प्रचारक भी नरपतगंज आए थे। भाजपा विधायक को लेकर उन्होंने कहा- “हालांकि वे सुलभ हैं, क्षेत्र में आसानी से उपलब्ध हैं लेकिन यह भी सच है कि कुछ शिकायतें भी हैं। संघ में उनका विरोध है क्योंकि वे स्वंयसेवक विधायक नहीं हैं।”

मनोज की बातों को सुनते हुए लगा कि जहां एक ओर संघ के लोग उनसे नाराज हैं तो वहीं दूसरी ओर इसी के समानांतर महर्षि मेंही के अनुनायी उनके साथ हैं। दरअसल धर्म के एक सिरे को वे संतमत के जरिए थामे हुए हैं। शायद इसी का बैलेंस लेकर वे राजनीति कर रहे हैं।


इसी विधानसभा क्षेत्र का एक इलाका है – फुलकाहा बाजार। हम जब वहां गए तो ग्राउंड में भाजपा और जदयू के गठबंधन को लेकर बातचीत सुनने को मिली। यह एक समृद्ध बाजार है। नेपाल सीमा से सटा यह इलाका हर साल बाढ़ का सामना करता है। फुलकाहा का प्रखंड बनाने की मांग स्थानीय व्यवसायी करते आए हैं। यहां राष्ट्रीय जनता दल भी मजबूत स्थिति में है।

इसी विधानसभा क्षेत्र में आता है घुरना बाजार। यह नेपाल सीमा से काफी नजदीक है। बॉर्डर रोड पर स्थित यह इलाका मुस्लिम आबादी से घिरी है। यहां की समस्या धर्म और बाजार से संबंधित है। यहां के लोग एक ओर जहां भाजपा विधायक को अपना समर्थन देते दिखे तो वहीं अररिया के भाजपा कोटे के सांसद प्रदीप सिंह के खिलाफ दिखे। राजनीति का यह रूप दरअसल विधानसभा और लोकसभा चुनाव के मूड को दर्शाता है।

राजद को इस विधनसभा क्षेत्र में कमजोर नहीं आंका जाना चाहिए और दूसरी तरफ प्रशांत किशोर की पार्टी जनसुराज का झंडा भी इस इलाके में खूब दिखने को मिला। मामला उधर भी कमजोर नहीं है क्योंकि राजद और भाजपा के असंतुष्ट खेमे की नजर प्रशांत किशोर की राजनीति पर है। बाद बांकी परिणाम तो समय ही बताएगा।


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Friday, April 11, 2025

जब सपने में आए रेणु! [ फणीश्वरनाथ नाथ रेणु की आज पुण्यतिथि है ]


“मैं तो तुम्हारे जन्म से छह साल पहले ही उस ‘लोक’ चला गया था, फिर तुम्हें बार-बार मेरी याद क्यों आती है ? ख़ैर, एक बात बताओ , क्या सचमुच सुराज आ गया है वहां..? विदापत नाच वाले ठिठर मंडल के घर चुल्हा जलता है कि नहीं..?  विदापत नाच होता है कि नहीं?“

“और एक सवाल तुमसे पूछने का मन है-  कब तक रेणु की बात लिखते रहोगे? कितना कुछ बदलाव दिखता है मेरे मैला आँचल में, क्या तुम आज की परती परिकथा बाँच नहीं सकते? कुछ नया तलाश करो अपने अंचल में, जिसकी बोली-बानी सबकुछ अपनी माटी की हो..’
‘तुम जानते हो, कोसी प्रोजेक्ट के नहरों की कथा अधूरी ही रह गई मुझसे। ठीक वैसे ही जयप्रकाश की भी कथा बाँच न सका।  

अरे हाँ, अररिया ज़िले की बसैठी की कहानी, रानी इंद्रावती की कहानी..कितना कुछ बांकी है और तुम हो कि मेरे मुहावरे में फँसे हो...

मेरे मुहावरे से बाहर निकलो , बाहर निकलो। सांप को केंचुल उतारते देखो हो? एक चिड़ियाँ होती है नीलकंठ, वह बहुत बारीकी से सांप पर नज़र रखती है।”

“तुम तो औराही ख़ूब जाते हो। सुनता हूँ कि मेरे नाम से कोई बड़ा सा भवन खड़ा कर दिया गया है बिहार की सरकार ने। चुनाव के वक्त सब दल की नजर रहती है हमारे नाम पर! सुनते हैं कि जाति की बात अब पहले से ज्यादा होने लगी है..."

"ख़ैर, ये सब तो माया है असल है ज़मीनी काम। जानते हो, मैं आजतक सुरपति राय और डॉक्टर प्रशांत का मुरीद हूँ, जानते हो क्यूँ? दरअसल  दोनों ही ज़मीन पर काम करते थे। फ़ील्ड वर्क का कोई तोड़ नहीं होता। महान विचार से जमीनी बात जरा भी कम नहीं होती। आज तुम जहाँ हो, वहाँ तुम अपने होने को सिद्ध करो। नया कुछ शब्द के ज़रिए दिखाओ, जो तुम्हारे आसपास ही घट रहा है। अच्छा-बुरा जो भी...”

“तुम सोच रहे होगे कि आज यह बूढ़ा भाषण देने के मूड में है लेकिन क्या करूँ, मुझे अपने अंचल की सही तस्वीर देखनी है। तुमने ‘ऋणजल धनजल’ पढ़ा है ? मैं ‘ऋणजल धनजल’ में अलग हूं। मुझे वही चाहिए। “

“ये बताओ ज़रा, अपने अंचल में कौन है जो जनता के बीच जाकर जीवन की त्रासदी और राजकाज की विफलता को, प्रकृति के क्रोध को दुनिया के सामने लाने का प्रयास कर रहा है? “

“एक बात जानते हो, कभी वेणु से पूछना कि नियति क्या होती है। मुझे बड़ा बेटा वेणु बहुत खिंचता है। बहुत कम उम्र में ही मैंने उसके कंधे पर सब भार सौंप दिया था। लेकिन उसने उस भार को स्वीकार किया। आज जब कभी वेणु को तुम्हारे मार्फ़त सुनता हूँ तो लगता है कि मेरा बड़ा बेटा तो कमाल का किस्सागो है! “

“ख़ैर, ये जान लो और मन में बाँध लो कि नियति ने तुम्हें उस जगह घेर दिया है जहाँ सम्पन्नता,विपन्नता,आपदा, उल्लास सब कुछ अथाह है, बस उसे अपनी आँख से देखने का प्रयास करो..”

........

मैं टकटकी लगाए ‘रेणु’ को देख-सुन रहा था। मैं अपने शबद-योगी को देख रहा था। जिस तरह मैला आंचल में डॉक्टर प्रशांत ममता की ओर देखता है न, ठीक वही हाल मेरा था..यह जागती आँखों का एक सपना था। 

{ 11 अप्रैल 1977, रात साढ़े नौ बजे, रेणु उस ‘लोक’ चले गए, जहाँ से आज भी वे सबकुछ देख रहे हैं शायद..}

Tuesday, April 08, 2025

जहां मिलती है गंगा और कोसी- त्रिमोहिनी संगम'

पूर्णिया जिला स्थित चनका गांव में जहां अपनी खेती बाड़ी की जमीन है, वह कोसी की एक उपधारा कारी कोसी का तट है। वहीं शहर पूर्णिया सौरा नदी के तट पर बसा है। हालांकि ये दोनों नदियां हम लोगों की वज़ह से नाले से भी बदतर बन चुकी है। नदी की बातें करने वाले अब नहीं के बराबर हैं, बात होती है तो बस प्लॉट की! बात होती है जमीन के टुकड़े को बेचकर शहर बसाने की!
खैर, यह सब लिखने के पीछे कोसी और गंगा नदी के संगम स्थल की यात्रा की कहानी है। हाल ही में शोध कार्य के सिलसिले में सूरत स्थित सेंटर फ़ॉर सोशल स्टडीज़ में एसोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत Sadan Jha  सर पूर्णिया आए थे। हमने उनके संग ही उस जगह की यात्रा की, जहां गंगा से मिलती है कोसी नदी। खुद पर गुस्सा भी आया कि अबतक 'त्रिमोहिनी संगम' क्यों नहीं गया था!

बिहार के कटिहार जिला स्थित कुर्सेला के पास गंगा के साथ कोसी नदी संगम करती है, जो 'त्रिमोहिनी संगम' के नाम से जानी जाती है।

इस जगह आप आसानी से नहीं पहुंच सकते हैं क्योंकि कोई तय रास्ता नहीं है। कुर्सेला पुल से जब हम नीचे उतरते हैं तो बाईं तरफ जो रास्ता दिखता है वही आपको कोसी गंगा संगम तक पहुंचाएगी।

नदी के ऊपर रेलवे का पुल, गुजरती आवाज देती रेलगाड़ियां लेकिन नीचे दूर दूर तक कोई नहीं,  एकदम सुनसान! नो मेंस लैंड! सफेद बालूचर का इलाका। 

पहले सुनते थे कि कोसी जिधर से गुजरती है, धरती बाँझ हो जाती है। सोना उपजाने वाली काली मिट्टी सफेद बालूचर का रूप ले लेती है। पहली बार इस बात को अनुभव करने का मौका मिला लेकिन बालूचर में अब इस मौसम में लोगबाग तरबूज उपजा लेते हैं, इसकी अलग कहानी है।

कोसी नदी और गंगा नदी जहां संगम करती है, वहां की धारा देखने लायक है। वहाँ जब हम पहुंचने की जुगत में थे और बालू वाले इलाके में फंस गए थे, तो उसी दौरान तीन लड़के दूर के किसी गांव से इसी संगम में डुबकी लगाने आ रहे थे और इस तरह 11 वीं में पढ़ने वाले ये तीन किशोर हमारे गाइड बन गए, फिर क्या था, इस अंचल की समसामयिक कहानियों का पिटारा ही खुल गया! इसकी कहानी फिर कभी।

करीब तीन किलोमीटर पैदल-पैदल धूल उड़ाते जब हम 'त्रिमोहिनी संगम' पहुंचे तो वहां की हवा ने हमारी सारी थकान को मानो हर लिया। दोनों नदियों का पानी अपने रंग की वजह से पहचाना जा सकता है, नील वर्ण में गंगा तो मटमैली कोसी लेकिन जहां दोनों मिलती है वहां के रूप के बारे में क्या कहें! अपरूप !

हम जब भी कोसी - गंगा की बात करते हैं तो बाढ़ पर अपनी बात रोक देते हैं लेकिन नदियों के जीवन पर और नदियों के आसपास के जीवन पर बातें बहुत कम होती है। उम्मीद है आने वाले समय पर सदन सर इस पर बातें करें। अपने लिए सदन सर उन गिने-चुने इतिहासकारों में से हैं, जो अँग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी में भी गंभीर शोधपूर्ण लेखन करते रहे हैं।

उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की आंचलिक आधुनिकता का विश्लेषण करते हुए सदन सर रेणु के अनोखे लहजे, कोसी अंचल की सांस्कृतिक स्मृति और कहन के अनूठेपन को व्याख्यायित करते हैं।

कोसी गंगा संगम पहुंच कर मुझे अहसास हुआ कि यही रास्ता हमें कोसी अंचल की कथा सुना सकता है। रेणु कहते थे कि  'घाट न सूझे बाट न सूझे,  सूझे न अपन हाथ ' कुर्सेला पुल से जब हम संगम की तरफ भागे जा रहे थे तो उनकी यही पंक्ति अपने कानों में गूंज रही थी। 

इस यात्रा पर रिपोर्ताज लिखने की इच्छा है। माटी के रंग को समझने की इच्छा है कि कैसे कोसी की माटी बालू बनकर अलग तरीके से धंस रही है तो वहीं गंगा की माटी सूखकर पत्थर की तरह किस तरह से आवाज दे रही है।  एकतरफ़ मक्का, गेंहू उपज रहा है तो एकतरफ तरबूज!

दरअसल नदी के व्यवहार को नदी के साथ रहकर ही समझा जा सकता है, नदी ही लोक है, नदी ही कथा है। इसके लिए नदी के आसपास प्रवास करना होगा। एक दिन की यात्रा से यह संभव नहीं है, कोसी के पास जाना होगा कई बार....


Sunday, February 23, 2025

बिहार और किसान

मखान को लेकर खूब बातचीत हो रही है सोशल स्पेस पर। आज कृषि मंत्री दरभंगा आए थे, मखान को लेकर किसानों संग बातचीत की है। उधर, किसान और किसान को दिए जाने वाले सम्मान निधि की राशि जारी करने को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी कल (24 फरवरी) भागलपुर आ रहे हैं। विधानसभा चुनाव की आहटों के बीच किसान की बातें खूब होने लगी है।
राजनीति में किसान सबसे सॉफ्ट टार्गेट होता है। मंच से किसान संबंधी बातें करते हुए दलों के लोग अद्भूत- अद्भूत शब्दों का प्रयोग करते हैं! फ़सल के लिए रिसर्च, बोर्ड, भवन आदि की बात करते हुए अरबों रुपये की बातें सुनकर किसान का मुख मंडल चमक उठता है! 

किसान ये सब सुनकर वापस लौट आता है, खेत को खाद पानी से सींचता है, आसमान की तरफ देखता है उम्मीद लिए शानदार फसल की आशा करता है। 

दूसरी ओर, चुनाव के लिए समां बंध जाता है। टिकट और फिर प्रचार-प्रसार का काम लोगबाग देखने लगते हैं। 

सर्वे एजेन्सी हवाई अड्डा, मखान, किसान सम्मान निधि जैसे 'की-वर्ड' को लेकर शानदार तिलिस्म रचते हैं, एक से बढ़कर एक नारे गढ़े जाते हैं और फिर चुनाव परिणाम के बाद सभी बातें पुरानी हो जाती है....

राजधानी में उत्सवों का दौर शुरू हो जाता है, कला- साहित्य पर चर्चा होती है, समागम होता है तो कहीं डेवलपमेंट- इन्वेस्टमेंट पर पांच सितारा बैठकी जमती है। 

इन सबके बीच किसान कहीं खो जाता है अगले चुनाव तक के लिए। लेकिन वह एकजुट नहीं हो पाता है क्योंकि बाजार से उसकी दूरी बनी ही रह जाती है!

धान, गेंहूँ, मक्का, मखान उपजता है, उपजता ही रहेगा। बाद बांकी भूमि सर्वे के नाम पर जमीन को तिलिस्म बनाने का काम सरकार करती ही रहेगी आने वाले कुछ वर्षों तक। 

वैसे कल प्रधानमंत्री भागलपुर जाएँगे वाया पूर्णिया! बिहार में इस बार मोदी जी भाजपा संगठन और संघ को दरभंगा- पूर्णिया- भागलपुर यानि मिथिला, सीमांत और अंग क्षेत्र में सक्रिय कर रहे हैं। इन इलाकों के विधानसभा क्षेत्रों पर अलग से नजर रखी जा रही है! शायद, बदलाव की उम्मीद है संघ और संगठन को !

बाद बांकी किसान का क्या है! वही धान- गेंहूँ- मक्का- मखान!